NATO द्वारा भारत और चीन को आपस में लड़वाने की साज़िश

रूस-यूक्रेन युद्ध को दो साल से ज़्यादा हो चुके हैं, और अब इस संघर्ष ने वैश्विक शक्ति संतुलन को एक नई दिशा में मोड़ दिया है। हाल ही में हुए घटनाक्रमों से साफ है कि पश्चिमी देश – खासतौर पर NATO – अपनी रणनीतिक विफलता को छिपाने के लिए भारत और चीन जैसे देशों के कंधे पर बंदूक रखने की कोशिश कर रहे हैं।

पश्चिम की रणनीति: परोक्ष रूप से भारत और चीन को घसीटना

NATO देशों, खासकर अमेरिका और ब्रिटेन ने हाल के महीनों में भारत और चीन पर दबाव बनाने की कोशिश की है कि वे रूस के खिलाफ खुले तौर पर स्टैंड लें। लेकिन ये दोनों देश अब तक संतुलित नीति अपनाते आ रहे हैं – न तो रूस की खुली आलोचना करते हैं और न ही यूक्रेन को हथियार देकर युद्ध में सीधा प्रवेश करते हैं।

इस तटस्थ रवैये से पश्चिम परेशान है और अब ‘कूटनीतिक नैतिकता’ के नाम पर भारत और चीन पर नैतिक दबाव बनाया जा रहा है।

भारत का रुख: रणनीतिक संतुलन का बेहतरीन उदाहरण

भारत ने शुरुआत से ही युद्ध को बातचीत और कूटनीति से सुलझाने का समर्थन किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘यह युद्ध का युग नहीं है’ वाला स्टेटमेंट दुनिया भर में सराहा गया। भारत ने यूक्रेन को मानवीय सहायता भेजी, लेकिन किसी पक्ष की सैन्य सहायता नहीं की।

अब पश्चिमी मीडिया और विश्लेषक यह सवाल उठा रहे हैं कि भारत क्यों “स्पष्ट” रुख नहीं अपनाता। पर सच्चाई ये है कि भारत की विदेश नीति हमेशा ‘भारत-प्रथम’ रही है – और यही रणनीति उसे एक भरोसेमंद वैश्विक शक्ति बनाती है।

Army
India China war

चीन की भूमिका: कूटनीति या रणनीतिक चाल?

चीन ने भी रूस के खिलाफ सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा, लेकिन उसने खुद को मध्यस्थता की भूमिका में पेश किया है। हालांकि, पश्चिमी देश चीन की नीयत पर सवाल उठा रहे हैं – उनका मानना है कि चीन ‘तटस्थता’ की आड़ में रूस को परोक्ष समर्थन दे रहा है।

यहाँ भी वही स्थिति है – पश्चिम चाहता है कि चीन रूस पर दबाव बनाए, लेकिन ऐसा करने से चीन अपने रणनीतिक साझेदार को खो सकता है।

NATO की लाचारी: युद्ध में उलझकर खो रही है साख

NATO देशों ने भारी मात्रा में हथियार और संसाधन यूक्रेन को दिए, लेकिन युद्ध का कोई अंत नहीं दिख रहा। रूस का नियंत्रण अब भी पूर्वी यूक्रेन के कई हिस्सों पर कायम है। इस स्थिति में NATO की भूमिका पर सवाल उठने लगे हैं।

NATO अब भारत और चीन जैसे देशों से उम्मीद कर रहा है कि वे रूस पर दबाव डालें, ताकि युद्ध जल्द खत्म हो। लेकिन ये कोशिश असल में उनकी रणनीतिक विफलता का संकेत है।

अमेरिका की दोहरी नीति: दोस्ती और दबाव साथ-साथ

अमेरिका एक ओर भारत से रणनीतिक साझेदारी मजबूत करना चाहता है (जैसे QUAD और इंडो-पैसिफिक नीति में सहयोग), तो दूसरी ओर रूस-यूक्रेन युद्ध में उससे स्पष्ट समर्थन की मांग करता है। यह दोहरी नीति भारत को सावधान कर रही है कि वह किसी भी वैश्विक खेमे में बिना सोचे-समझे शामिल न हो।

निष्कर्ष: युद्ध में कंधे की तलाश है, लेकिन भारत और चीन संभलकर चल रहे हैं

रूस-यूक्रेन युद्ध का मोर्चा अब सिर्फ दो देशों के बीच नहीं रहा, बल्कि यह वैश्विक शक्तियों की परीक्षा बन चुका है। NATO की लाचारी अब उन्हें यह सोचने पर मजबूर कर रही है कि अगर भारत और चीन जैसे देश रूस के खिलाफ खड़े नहीं हुए, तो यह युद्ध और लंबा खिंच सकता है।

लेकिन भारत और चीन अब भी अपनी-अपनी जगह पर सधे हुए कदम रख रहे हैं – और शायद यही नीति उन्हें इस जटिल समय में एक जिम्मेदार और स्थिर शक्ति के रूप में स्थापित कर रही है।

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